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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला

भले का फल भला

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 944
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।


॥ श्रीहरिः ॥

भलेका फल भला

पहिला परिच्छेद

पाठकगणके सामने उस समयकी एक आख्यायिका उपस्थित की जाती है जिस समय भारतमाता उन्नतिके शिखरपर पहुँचकर स्वर्गीय सुखका अनुभव कर रही थी। उसकी संतान हर तरहसे शान्त, सुखी, सदाचारी और स्वतन्त्र थी; धनी, मानी, उद्योगी और ज्ञानी थी एवं क्षमा, दया, परोपकार आदि सद्गुण अन्य देशोंको उसीसे सीखने थे। उस समय यहाँके व्यापारी सुदूर देशोंमें व्यापारके लिये जाया करते थे और विदेशी व्यापारी यहाँ आते रहते थे।

उस समय यहाँ बम्बई और कलकत्ता-जैसे बहुत-से समृद्धिशाली नगर थे और व्यापारका क्षेत्र विशाल होनेके कारण लोगोंका आना-जाना भी बहुत था।

छोटे शहरों, कसबों और गाँवोंकी स्थिति अच्छी थी। प्रजा-जीवन सुख-शान्तिसे व्यतीत होता था।
बौद्धधर्मका यह मध्याहनकाल था। जहाँ-तहाँ बुद्धदेवकी शिक्षाका पवित्र, शान्त और दयामय संगीत सुनायी देता था। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और धनिक बौद्धधर्मका प्रचार करते थे। हजारों बौद्ध श्रमण जहाँ-तहाँ विहार करते दृष्टिगोचर होते थे।

वाराणसी की ओर जानेवाली सड़कपर एक घोड़ागाड़ी दौड़ी जा रही थी। घोड़े बड़ी तेजीसे बढ़े जा रहे थे। गाड़ीमें केवल दो ही व्यक्ति थे। एक मालिक और दूसरा उनका नौकर। मालिकने अपने वैभव और प्रतिष्ठाके अनुरूप मूल्यवान् वस्त्रालंकार धारण कर रखे थे। उनकी मुखमुद्रासे ऐसा जान पड़ता था कि वे अपने निश्चित स्थानपर जल्दी पहुँचना चाहते हैं।

हालही में बरसात होनेके कारण ठंडी हवा चल रही थी। लगातारकी वृष्टिके पश्चात् बादल बिखर गये थे। सूर्यनारायणके प्रकाशसे धरती उजली हो रही थी। दिन सुहावना लगता था। वर्षाके जलसे धुलकर स्वच्छ हुए हरे-हरे पत्ते पवनकी लहरोंसे आनन्द-नृत्य कर रहे थे। प्रकृतिदेवीने अपूर्व शोभा धारण कर रखी थी।

आगे थोड़ा-सा चढ़ाव था, अत: घोड़ोंकी चाल कुछ धीमी पड़ी। सेठने जब बाहरकी ओर दृष्टि की, तब उन्होंने एक बौद्ध श्रमणको नजर नीची किये सड़कके किनारेसे गुजरते हुए देखा। उनकी मुखमुद्रापर शान्ति, पवित्रता और गम्भीरता छायी थी। उनके दर्शन करते ही सेठके हृदयमें उनके प्रति पूज्य भावका उद्भव हुआ और उनके मनमें एक विचार आया, 'ये कोई महात्मा लगते हैं, पवित्र मूर्ति और धर्मावतार दिखायी देते हैं। विद्वान् लोगोंने सज्जन-समागमको पारसमणिकी उपमा दी है। जैसे पारसके संयोगसे लोहा सुवर्ण बन जाता है, ठीक उसी तरह सजनके संगमसे भाग्यहीन भी भाग्यशाली बन जाते हैं। यदि महात्माको वाराणसी जाना हो तो मैं उन्हें अपनी गाड़ीमें बैठनेके लिये प्रार्थना करूं। यदि इन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली तो बहुत ही उत्तम है। इनके समागममें मुझे अवश्य लाभ होगा।' इस तरहका विचार मनमें आते ही सेठजीने गाड़ी रोक ली और महात्मा पुरुषको प्रणाम करके उनसे गाड़ीमें बैठनेके लिये प्रार्थना की। महात्माजीको काशी ही तो जाना था, इसलिये वे गाड़ीमें बैठ गये और बोले-

'सेठजी ! आपका मुझपर बड़ा उपकार है। बहुत समयसे चलते-चलते मैं थक गया था और आपने मुझे गाड़ीमें साथ बैठा लिया। इससे मैं आपका ऋणी हो गया। मुझ-जैसे साधुके पास आपको देनेयोग्य ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिससे मैं आपका ऋण चुका सकूं। फिर भी परम गुरु महात्मा बुद्धदेवके उपदेशरूपी अक्षय भण्डारमेंसे जो कुछ भी मैं संग्रह कर सका ऋणभारको कुछ हलका करना चाहता हूँ।'

सेठजीको इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। आनन्दमें समय बीतने लगा। उन्होंने श्रमणके सुबोधरूपी रत्नोंको बड़े प्रेमसे अपने हृदयमें धारण करना शुरू किया। गाड़ी आगे बढ़ रही थी। लगभग एक घंटेके बाद गाड़ी एक सँकरे नालेके पास पहुँची। आगे एक बड़ा गाड़ा था। इससे सेठजीकी गाड़ी वहाँसे आगे नहीं बढ़ सकी, वहीं रुक गयी।

वह बैलगाड़ा एक किसानका था। उसका नाम देवल था।

वह बैलगाड़ा भी वाराणसीकी ओर जा रहा था। उसमें चावलके बोरे भरे हुए थे। शाम ढलनेसे पहले ही देवलको वाराणसी पहुँचना था। किंतु इस संकीर्ण रास्तेपर आते ही धुंसरीकी कील निकल गयी और गाड़ेका एक पहिया अलग हो गया। अब क्या किया जाय? देवल बेचारा अकेला था। उसने खूब प्रयत्न किये। प्रयत्न करते-करते तो उसका सिर चकराने लगा था, फिर भी बैलगाड़ा एक कदम भी आगे बढ़ न सका।

सेठजीने देखा कि वह बैलगाड़ा मार्गमें रुकावट बनकर खड़ा था। उन्हें देर हो रही थी। सेठजीको यह देखकर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने अपने नौकरको आदेश देते हुए कहा-'चलो, जल्दी करो, नीचे उतरो, कहाँतक हम खड़े रहेंगे। जिस फिर उस गाड़ेको रास्तेसे हटाकर अपनी गाड़ीको आगे ले चलो।' आदेश सुनते ही किसानने हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हुए कहा-'सेठजी! मैं गरीब किसान हूँ, मुझपर दया कीजिये, कुछ देरके लिये रुक जाइये। यदि आपने मेरे चावलके बोरे नीचे गिरा दिये तो मुझे बड़ा नुकसान होगा। आप तो देख ही रहे हैं कि बरसात हो जानेके कारण यहाँपर बहुत कीचड़ जमा हो गया है। इस कीचड़में चावलके बोरे फेंक देंगे तो वे खराब हो जायेंगे। उनमें बदबू आने लगेगी। मुझपर दया करिये, मैं अभी पहियेको ठीक करके आपका रास्ता ठीक किये देता हूँ, फिर आप अपनी गाड़ीको खुशीसे आगे ले जा सकते हैं।' किंतु सेठजीने उसकी प्रार्थना सुनी-अनसुनी कर दी। उन्होंने रोष प्रकट करते हुए नौकरको डाँटा। नौकरने
फौरन ही सेठजीकी आज्ञाका पालन करते हुए चावलके बोरे कीचड़में फेंक दिये। बैलगाड़ेको दूर हटाकर सेठजीकी गाड़ी आगे बढ़ी।

'अरे इस संसारमें गरीबका सहायक कोई नहीं है। अपने नगण्य लाभके लिये दूसरेका सर्वनाश करनेवाले धनमतवालोंकी उस समय भी कमी न थी। गरीबोंके रक्षक बननेके बजाय उनके भक्षक बननेवाले अमीरोंसे यह जगत् न तो कभी खाली था और न होगा ही। हाँ उस समय बौद्ध-धर्मके साधुओंका दयामय हाथ गरीबोंकी सहायताके लिये सदा तत्पर रहता था। वे लोग धार्मिक विवादोंमें व्यर्थ न पड़कर मनुष्यमात्रके साधारण हितकी चिन्तामें निरन्तर लगे रहते थे। वे अपने मन, वचन और तनका उपयोग मुख्यत: परोपकारके कार्यमें ही किया करते थे।'

सेठजीकी गाड़ी ज्यों ही आगे बढ़ने लगी कि उसी समय श्रमण नारद गाड़ीमेंसे कूद पड़े और सेठजीसे बोले-'सेठजी! क्षमा कीजियेगा। अब मैं आपके साथ गाड़ीमें न चल सकूंगा। आपने विवेकपूर्वक मुझे एक घंटे अपने साथ गाड़ीमें बिठाया, इससे अब मेरी थकावट दूर हो चुकी है। फिर भी मैं आपके साथ चलता; किंतु अब मेरे मनमें आपके उपकारका बदला चुकानेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी है और उपकारका बदला उतारने का अच्छा अवसर भी मिल गया है।'

सेठजीने कहा-'आप गाड़ी से उतर जायेंगे तो इससे उपकारका बदला किस तरह और किसके प्रति चुकायेंगे?' 'सेठजी'-श्रमणने कहा, 'जिस किसानके बैलगाड़ेको उलटाकर हम आगे बढ़े हैं, वह किसान आपका बहुत निकटका सम्बन्धी रिश्तेदार है। मैं उसे आपके किसी पूर्वजका अवतार मानता हूँ। इसलिये उसकी सहायता करके मैं आपके उपकारका बदला चुकानेके लिये उस ओर जा रहा हूँ। उसे जो लाभ होगा, वह लाभ आपको ही हुआ समझिये। उस किसानके भाग्यके साथ आपकी भलाईका बहुत गहरा सम्बन्ध है। आपने उसे जो कष्ट दिया है, मुझे लगता है कि इससे आपका बहुत नुकसान हुआ है। इसलिये मेरा यह कर्तव्य है कि आपकी भलाई करनेके उद्देश्यसे तथा इस नुकसानसे आपको बचानेके लिये मैं यथाशक्ति उसकी सहायता करूं।'

सेठने श्रमणकी इस मार्मिक उक्तिपर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्हें वे व्यवहारमें अकुशल बुद्धिवाले बहुत भले आदमी जान पड़े। आखिर श्रमणको छोड़कर सेठजीने गाड़ी आगे बढ़वा दी।

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